श्री गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र: संपूर्ण संस्कृत पाठ

श्री गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र भगवान गणेश को समर्पित एक वैदिक स्तोत्र है जो उनके दिव्य स्वरूप, शक्ति और ब्रह्म स्वरूप का वर्णन करता है। इस लेख में आप संपूर्ण संस्कृत पाठ पढ़ सकते हैं।

श्री गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र: संपूर्ण संस्कृत पाठ

श्री गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को अनेक आध्यात्मिक, मानसिक और सांसारिक लाभ प्राप्त होते हैं। नीचे इसके प्रमुख लाभ (Benefits) दिए गए हैं:


 श्री गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र के लाभ:

1.    सभी विघ्नों का नाश होता है
भगवान गणेश को "विघ्नहर्ता" कहा गया है। इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से जीवन के सभी अवरोध, विघ्न और परेशानियाँ दूर होती हैं।

2.    बुद्धि और स्मरण शक्ति में वृद्धि
यह स्तोत्र गणेश जी की उस रूप में स्तुति करता है जहाँ वे "ज्ञानमयो" और "विज्ञानमयो" कहे गए हैं। विद्यार्थियों और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे लोगों के लिए यह अत्यंत लाभकारी है।

3.    मानसिक शांति और ध्यान में सफलता
इसके नियमित पाठ से मानसिक तनाव दूर होता है और मन स्थिर व शांत रहता है। योग साधना या ध्यान में बैठे साधकों के लिए यह बेहद उपयोगी है।

4.    सकारात्मक ऊर्जा और आत्मबल में वृद्धि
इस स्तोत्र में उच्चारण की ध्वनि और अर्थ दोनों मिलकर शक्तिशाली ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, जिससे व्यक्ति में आत्मविश्वास और उत्साह बढ़ता है।

5.    संपत्ति, सौभाग्य और समृद्धि में वृद्धि
गणपति को "सिद्धि विनायक" कहा गया है — जो इस स्तोत्र का पाठ श्रद्धा से करता है, उसे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में लाभ प्राप्त होता है।

6.    दुष्ट ग्रहों और दोषों से मुक्ति
गणपति का यह स्तोत्र ज्योतिष शास्त्र में राहु-केतु दोष, मंगल दोष आदि के शांति पाठ के रूप में भी उपयोग किया जाता है।

7.    शारीरिक स्वास्थ्य में लाभ
कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह रोग, जरा (बुढ़ापा), और मृत्यु के भय से मुक्त रहता है।

8.    पंच महापापों से मुक्ति
शास्त्रों में वर्णित है कि इसका पाठ करने से व्यक्ति पाँच महापापों से मुक्त हो जाता है।

9.    भक्ति और आत्मज्ञान की प्राप्ति
यह स्तोत्र भगवान गणेश को ब्रह्मस्वरूप मानकर उनकी उपासना करता है। इससे साधक को आत्मज्ञान, ईश्वर भक्ति और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन मिलता है।

 

श्रीगणेश अथर्वशीर्षम्

॥ श्री गणेशाय नमः ॥

ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।
त्वं साक्षाद्‌ आत्माऽसि नित्यम्॥

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि॥

अव त्वं माम्।
अव वक्तारम्।
अव श्रोतारम्।
अव दातारम्।
अव धातारम्।
अवानूचानमव शिष्यम्।
अव पुरस्तात्‌।
अव दक्षिणात्तात्‌।
अव पश्चिमात्तात्‌।
अवोत्तरात्तात्‌।
अव चोर्ध्वात्तात्‌।
अवाधरात्तात्‌।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्॥

त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः।
त्वम्आनन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः।
त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि॥

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि॥

त्वं गुणत्रयातीतः।
त्वं देहत्रयातीतः।
त्वं कालत्रयातीतः।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्।
त्वं शक्तित्रयात्मकः।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्॥

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रः।
त्वं अग्निस्त्वं वायुः।
त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमाः।
त्वं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्॥

गणादिं पूर्वं उच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्।
अनुस्वारः परतरः।
अर्धेन्दुलसितं।
तारेण ऋद्धं।
एतत्तव मनुस्वरूपम्॥
गकारः पूर्वरूपम्।
अकारो मध्यमरूपम्।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्।
बिन्दुरुत्तररूपम्।
नादः संधानम्।
सांहिता संधिः।
स एष गणेशविद्या।
गणक ऋषिः।
निचृद्गायत्री छन्दः।
गणपतिदेवता।
ॐ गं गणपतये नमः॥

एकदन्ताय विद्महे।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥

एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्॥
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्॥
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्॥
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगवित्तमः॥

न मोघं विद्यते तस्य यः विद्यामेतां अधीते।
स सर्व सिद्धिमाप्नोति।
स सर्व विघ्नैः प्रमुच्यते।
स नित्यं सुखमेधते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।
ध्यायन्यमः सदा योगी स ज्योतीसमाप्नोति।
नास्य रोगो न जरा न मृत्यु: न दुःखं न पापं विद्यते।
सर्वं जयं लभते।
सर्वतो जयं लभते॥

॥ इति श्री गणपत्यथर्वशीर्षं सम्पूर्णम् ॥