जातिगत जनगणना क्या होती है? जानिए फायदे, नुकसान और विवाद

जानिए जातिगत जनगणना क्या होती है, इसके फायदे, नुकसान और इससे जुड़ा राजनीतिक और सामाजिक विवाद। क्या यह भारत में सामाजिक न्याय ला सकती है?

जातिगत जनगणना क्या होती है? जानिए फायदे, नुकसान और विवाद

भारत में जनगणना हर 10 साल में एक बार होती है। यह देश की जनसंख्या, शिक्षा, भाषा, धर्म, लिंग, ग्रामीण-शहरी विभाजन आदि की व्यापक जानकारी देती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से एक मांग तेज़ हुई है — जातिगत जनगणना (Caste Census) की। ये मांग उठाई जा रही है कि सरकार जनगणना के दौरान यह भी दर्ज करे कि कौन किस जाति से है। सवाल उठता है कि जातिगत जनगणना क्या है, क्यों जरूरी मानी जा रही है और इसके विरोध के क्या कारण हैं?


 जातिगत जनगणना क्या है?

जातिगत जनगणना का मतलब है — देश की सभी जातियों की संख्या, सामाजिक स्थिति, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति को दर्ज करना। यानी केवल यह नहीं कि कोई अनुसूचित जाति (SC), जनजाति (ST), या अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में आता है, बल्कि उसकी वास्तविक जाति का नाम (जैसे यादव, कुशवाहा, नाई, गुर्जर, राजपूत, आदि) भी दर्ज किया जाए।

भारत में पिछली बार पूरी जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। उसके बाद से जातियों की संख्या और उनका अनुपात कितनी बदली है — इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।


 इसकी ज़रूरत क्यों महसूस की जा रही है?

1.    नीतियों की सटीकता के लिए:
सरकारें जब आरक्षण, स्कीम या सुविधा बनाती हैं, तो उन्हें वास्तविक आंकड़ों की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए — यदि OBC को 27% आरक्षण दिया गया है, तो क्या उनकी आबादी भी 27% है? यह तभी पता चलेगा जब जातिगत आंकड़े होंगे।

2.    पिछड़े वर्गों की पहचान:
कई जातियां आज भी सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी हैं लेकिन आरक्षण या लाभ से वंचित हैं। जातिगत डेटा से उन्हें चिह्नित किया जा सकता है।

3.    समाज में न्याय के लिए:
यह विश्वास बढ़ता है कि अगर सबकी जातिगत स्थिति दर्ज होगी तो नीति निर्धारण में पारदर्शिता बढ़ेगी।


 जातिगत जनगणना के लाभ

1.    आधिकारिक डेटा उपलब्ध होगा:
अभी OBC आबादी को लेकर कोई ठोस डेटा नहीं है। कुछ लोग कहते हैं 52%, कुछ कहते हैं 41%। ऐसे में नीतियों की बुनियाद डगमग रहती है।

2.    न्यायोचित आरक्षण संभव:
अगर कोई जाति OBC लिस्ट में है लेकिन उनके पास अच्छा प्रतिनिधित्व नहीं है, तो उसे अधिक सुविधाएं दी जा सकती हैं।

3.    छिपे हुए भेदभाव को उजागर करना:
शिक्षा, नौकरियों, आमदनी के स्तर पर किस जाति की क्या स्थिति है — इससे असली तस्वीर सामने आएगी।

4.    राजनीतिक प्रतिनिधित्व में संतुलन:
अगर आंकड़ों से पता चलता है कि कोई बड़ी आबादी है लेकिन उन्हें राजनैतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, तो सुधार हो सकता है।


 जातिगत जनगणना को लेकर आपत्तियां

1.    जातिवाद को बढ़ावा:
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रक्रिया से जातिवाद और मजबूत होगा। लोग जाति के आधार पर और बंट सकते हैं।

2.    राजनीतिक दुरुपयोग:
यह खतरा है कि राजनीतिक पार्टियां इन आंकड़ों का इस्तेमाल वोट बैंक बनाने के लिए करेंगी, न कि समाज सुधार के लिए।

3.    प्रशासनिक बोझ:
जनगणना प्रक्रिया पहले से ही भारी होती है। जाति की पहचान करना और उसे ठीक से दर्ज करना बड़ा और जटिल कार्य होगा।

4.    समाज में विभाजन:
अगर जातियों की स्थिति सार्वजनिक हो जाए, तो इससे सामाजिक तनाव या असमानता की भावना बढ़ सकती है।


 वर्तमान स्थिति क्या है?

भारत सरकार ने 2021 में होने वाली जनगणना में जातिगत जनगणना नहीं करने का फैसला लिया था। सरकार का तर्क था कि यह बेहद जटिल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील विषय है। हालांकि, बिहार सरकार ने 2022 में अपनी अलग जातिगत गणना शुरू की, जिसका परिणाम 2023 में आया।

बिहार की रिपोर्ट के अनुसार:

  • OBC + EBC की आबादी लगभग 63% निकली।
  • सवर्ण जातियों की आबादी लगभग 15% के आसपास थी।

यह रिपोर्ट जातिगत आरक्षण के नए सिरे से मूल्यांकन की मांग को बल देती है।


 राजनीतिक दृष्टिकोण

  • विपक्षी दल, खासकर क्षेत्रीय पार्टियां जैसे राजद, सपा, जदयू आदि जातिगत जनगणना का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि इससे पिछड़े वर्गों को न्याय मिलेगा।
  • केंद्र सरकार (भाजपा) ने बार-बार यह कहकर इसे टाल दिया है कि “यह संवेदनशील मुद्दा है और इससे समाज में विभाजन हो सकता है।”

सामाजिक दृष्टिकोण

जातिगत जनगणना का समर्थन करने वाले लोग कहते हैं कि:

  • जाति पहले से ही समाज में मौजूद है।
  • जब तक इसे स्वीकार कर डेटा इकट्ठा नहीं किया जाएगा, तब तक इससे जुड़ी समस्याएं हल नहीं होंगी।

जबकि विरोध करने वालों का मानना है कि:

  • यह भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सामाजिक विभाजन को और गहरा कर सकता है।
  • बेहतर होगा कि हम जाति से ऊपर उठकर सोचें।

जातिगत जनगणना एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा है। इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में मजबूत तर्क हैं। यह तय करना कि इसे कब और कैसे करना चाहिए — यह एक समवेत सोच और ठोस योजना से ही संभव है।

यदि जातिगत जनगणना निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से की जाए, और उसका उपयोग केवल नीतिगत सुधारों के लिए हो — तो यह भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय को नई दिशा दे सकती है।


 Disclaimer

यह लेख केवल सूचना और जागरूकता के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें दी गई जानकारी विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोणों पर आधारित है। किसी भी निर्णय या राय से पहले संबंधित विशेषज्ञों से सलाह लेना उचित रहेगा।