सोमगिरि शिलालेख: पांड्य और चोल वंश के इतिहास की पत्थरों में छिपी कहानी | सोमगिरी शिलालेख एक खोज
तमिलनाडु के सोमगिरि शिलालेख से पांड्य और चोल वंश की धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत की गहराई से पड़ताल की गई है।

मदुरे के पास सोमगिरि पहाड़ी में प्राप्त शिलालेख एक ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण खोज मानी जाती है। यह शिलालेख भारत के प्राचीन इतिहास, विशेषकर दक्षिण भारत के राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश को समझने में मदद करता है।
यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बिंदु दिए जा सकते हैं:
सोमगिरि शिलालेख (Somgiri Inscription) की प्रमुख विशेषताएँ:
1. स्थान: यह शिलालेख तमिलनाडु राज्य के मधुरै (Madurai) के पास स्थित सोमगिरि (Somgiri) नामक पहाड़ी में पाया गया है।
2. काल: इस शिलालेख को पांड्य वंश के शासनकाल से जोड़ा जाता है, जो लगभग 7वीं से 9वीं शताब्दी ईस्वी के बीच सक्रिय रहा।
3. भाषा और लिपि:
o भाषा: आमतौर पर प्राचीन तमिल या संस्कृत।
o लिपि: ग्रंथम, वट्टेऴुतु (Vatteluttu), या कभी-कभी नागरी।
4. विषयवस्तु:
o इस शिलालेख में संभवतः किसी राजा द्वारा किए गए दान, मंदिर निर्माण, या धार्मिक अनुष्ठान का वर्णन है।
o इसमें देवताओं, विशेषकर शिव या विष्णु की स्तुति हो सकती है।
o शिलालेख यह भी स्पष्ट कर सकते हैं कि किसी विशिष्ट पहाड़ी या स्थल को तीर्थ मानकर वहां पूजा-अर्चना की जाती थी।
5. महत्व:
इस प्रकार के शिलालेख इतिहासकारों को तत्कालीन धार्मिक जीवन, शासन व्यवस्था, और समाज संरचना को समझने में सहायता करते हैं।
यह शिलालेख पांड्य राजाओं की धार्मिक नीति, क्षेत्रीय विस्तार, और लोकप्रिय धर्मों का संकेत भी देता है।
सोमगिरि शिलालेख: चोल और पांड्य वंश के वैभव की अमिट छाप
भारत का इतिहास केवल कागज़ों में नहीं, बल्कि पत्थरों पर भी लिखा गया है। शिलालेखों के माध्यम से हमारे पूर्वजों ने समय, संस्कृति, धर्म और शासन व्यवस्था की अमूल्य जानकारी छोड़ रखी है। ऐसा ही एक उल्लेखनीय शिलालेख तमिलनाडु में मधुरै के पास स्थित सोमगिरि पहाड़ी में प्राप्त हुआ है। यह शिलालेख न केवल पांड्य वंश की महत्ता को दर्शाता है, बल्कि चोलों की शक्ति, संस्कृति और दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास को भी उजागर करता है।
सोमगिरि शिलालेख की खोज
तमिलनाडु के मधुरै जिले के पास स्थित सोमगिरि पहाड़ी पर यह प्राचीन शिलालेख खुदा हुआ मिला। पुरातत्वविदों द्वारा इसका अध्ययन करने पर पता चला कि यह शिलालेख पांड्य काल से संबंधित है। इसमें प्राचीन तमिल भाषा में वट्टेऴुतु लिपि का प्रयोग हुआ है।
इस शिलालेख में एक पांड्य राजा द्वारा किसी धार्मिक अनुष्ठान के लिए भूमि दान अथवा मंदिर निर्माण का वर्णन है। इसमें यह भी उल्लेख है कि सोमगिरि पहाड़ी को धार्मिक दृष्टि से अत्यंत पवित्र माना जाता था। यह स्थल शिवभक्ति से जुड़ा रहा है, जैसा कि उस काल की अन्य मूर्तियों और मंदिरों से भी प्रमाणित होता है।
पांड्य वंश: शक्ति, संस्कृति और शिवभक्ति
पांड्य वंश दक्षिण भारत के तीन महानतम राजवंशों – चोल, पांड्य और चेर – में से एक था। इनका शासन लगभग 4वीं शताब्दी ई.पू. से शुरू होकर 14वीं शताब्दी ईस्वी तक चला। मधुरै इनकी राजधानी रही, और यह शहर धार्मिक, सांस्कृतिक एवं व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र था।
पांड्य शासक शिवभक्त थे, और उन्होंने कई भव्य शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। सोमगिरि शिलालेख इस बात का साक्ष्य है कि पांड्य राजा केवल मंदिर निर्माण ही नहीं, बल्कि तीर्थ स्थलों के विकास और संरक्षण में भी गहरी रुचि रखते थे।
चोल वंश: दक्षिण का स्वर्णयुग
जब दक्षिण भारत की बात होती है, तो चोल वंश का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। इनका शासनकाल लगभग 850 ई. से 1279 ई. तक फैला रहा और यह काल दक्षिण भारत का स्वर्णयुग कहलाया। चोल सम्राटों ने न केवल तमिल भूमि पर शासन किया, बल्कि श्रीलंका, मलेशिया, और इंडोनेशिया तक समुद्री विजय अभियान चलाए।
राजराज चोल और राजेन्द्र चोल जैसे सम्राटों ने तमिल संस्कृति, कला और स्थापत्य को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। बृहदेश्वर मंदिर (तंजावुर) चोल स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है, जिसे UNESCO ने विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है।
चोलों की शासन व्यवस्था अत्यंत संगठित और न्यायपूर्ण थी। गाँवों को स्वायत्तता दी जाती थी और ग्राम सभाएं फैसले लेती थीं – एक तरह से स्थानीय लोकतंत्र की नींव यहीं पड़ी।
पांड्य और चोल: प्रतिस्पर्धा या पूरकता?
पांड्य और चोल वंशों के बीच समय-समय पर संघर्ष भी हुए, लेकिन उनके शासन काल ने दक्षिण भारत को ज्ञान, धर्म, साहित्य और स्थापत्य कला में शीर्ष पर पहुँचाया। दोनों वंश शिवभक्ति के प्रबल समर्थक थे, और उनके शासन में मंदिर संस्कृति का अद्भुत विकास हुआ।
सोमगिरि जैसे शिलालेख यही दर्शाते हैं कि उस समय धर्म, राजनीति और समाज का गहरा संबंध था। राजा स्वयं को भगवान का प्रतिनिधि मानकर शासन करते थे, और दान, मंदिर निर्माण तथा यज्ञ जैसे कार्यों को धर्म और राज्य दोनों की उन्नति का माध्यम मानते थे।
शिलालेखों का महत्व
शिलालेख इतिहास के मौन साक्षी होते हैं। सोमगिरि का यह शिलालेख हमें यह समझने में मदद करता है कि:
तत्कालीन समाज में धर्म का कितना महत्व था।
किस प्रकार से राजाओं द्वारा मंदिरों को संरक्षण और दान दिया जाता था।
किस भाषा और लिपि का प्रयोग उस समय होता था।
पहाड़ियों और प्राकृतिक स्थलों को भी तीर्थ का दर्जा प्राप्त था।
इस शिलालेख के माध्यम से हमें पांड्य वंश की धार्मिक नीति, प्रशासनिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक मूल्यों की झलक मिलती है। साथ ही, चोल काल की तुलनात्मक जानकारी भी प्राप्त होती है जो इन दोनों वंशों के बीच के संबंधों को समझने में सहायक है।
निष्कर्ष
सोमगिरि शिलालेख केवल एक पत्थर पर खुदा हुआ लेख नहीं है, बल्कि वह इतिहास की वह खिड़की है, जिससे झाँककर हम दक्षिण भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक विरासत को देख सकते हैं। पांड्य और चोल वंशों की ऐतिहासिक यात्रा केवल शस्त्रों की गाथा नहीं, बल्कि भक्ति, कला, और संस्कृति का महाकाव्य है।
ऐसे शिलालेखों का संरक्षण और अध्ययन न केवल हमारे अतीत को उजागर करता है, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी दिशा देता है। इतिहास को जानना केवल ज्ञान नहीं, आत्मगौरव की अनुभूति भी है।
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